क्या होता है लीप ईयर /वर्ष
आमतौर पर साल में 365 दिन होते है। मगर एक लीप वर्ष में 366 दिन होते है। लीप वर्ष में जोड़ा गया एक दिन फ़रवरी के महीने में 29 तारीख के रूप में जुड़ता है। ऐसा हर चार साल बाद होता है। इसलिए लीप वर्ष हर चार साल बाद आता है।
लीप ईयर की ज़रूरत क्यों है ?
पृथ्वी को सूर्य का एक चक्कर लगाने में 365 दिन 5 घंटे 48 मिनट 46 सेकंड का वक़्त लगता है। इसे हम 1 सोलर ईयर कहते है। इन 365 दिनों के अतिरिक्त इस 5 घंटे 48 मिनट 46 सेकंड के समय को कैलेंडर में जगह देने के लिए हर चार साल बाद फ़रवरी के महीने में 1 अतरिक्त दिन 29 तारीख के रूप में जोड़ दिया जाता है।
5 घंटे 48 मिनट 46 सेकंड को लगभग 6 घंटे मान लिया गया है।
6 घंटे x 4 = 24 घंटे = 1 दिन
लीप वर्ष = 365 + 1 दिन = 366 दिन
अगर लीप ईयर नहीं होगा तो क्या होगा ?
हम देखते है की सभी ऋतुओं का सम्बन्ध साल के महीनों से होता है। जैसे उत्तरी भारत में नवंबर से लेकर मार्च तक मौसम ठंडा रहता है। फिर गर्मी आती है तो फिर बारिश। और आप यह भी जानते है की पृथ्वी सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाने में 365 दिन से कुछ अतिरिक्त समय लेती है।
यदि इन कुछ घंटो को कैलेंडर में निश्चित अंतराल पर जगह ना दी गई तो एक समय ऐसा आएगा की ये कुछ घंटे जमा होते जाएंगे। जिससे हमारी ऋतुओं और महीनों के बीच तालमेल बिगड़ जाएगा। हो सकता है तब एक वक़्त बाद आप मई में रज़ाई लेकर सो रहे हो और जनवरी में पसीना पोंछ रहे हो।
लीप ईयर कब शुरू हुआ ?
करीब 40 ईसा पूर्व रोमन साम्राज्य में पुराने रोमन कैलेंडर का इस्तेमाल होता था। मगर तब तक रोमन कैलेंडर सोलर ईयर से 3 महीने आगे खिसक चुका था। जिसकी वजह से ऋतुओं और मौसमी गतिविधियों में तालमेल ख़त्म हो गया था।
इस समस्या के निदान के लिए 46 ईसा पूर्व जूलियस सीज़र ने अलेक्जेंड्रिया के खगोलशास्त्री सोसिजेन्स की मदद से जूलियन कैलेंडर पेश किया। इस कैलेंडर में साल में 12 ही महीने थे जिनमे 30 या 31 दिन थे। मगर इसमें हर चौथे साल फ़रवरी महीने में 28 की जगह 29 दिन होते थे। मगर आज की तरह यह 29 तारीख़ नहीं होती थी बल्की उस साल फ़रवरी महीने में 23 तारीख दो बार आती थी।
जूलियन कैलंडर में 1 सोलर ईयर = 365 + 1/4 दिन के बराबर लिया गया था। जबकि पृथ्वी को सूर्य का एक चक्कर लगाने में 365 दिन 5 घंटे 48 मिनट 46 सेकंड का वक़्त लगता है। जिस कारण इस कैलेंडर का 1 साल सोलर ईयर से 11 मिनट 14 सेकंड लंबा था।
साल 1582 तक आते आते यह 11 मिनट 14 सेकंड का समय इकट्ठा होता गया और जूलियन कैलेंडर सोलर ईयर से 10 दिन आगे खिसक गया।
इस समस्या से निपटने के लिए 1582 में पॉप ग्रेगोरी-13 ने ग्रेगोरियन कैलेंडर पेश किया। जिसमे नीचे दिए गए तरीकों से एक सटीक कैलेंडर बनाया गया जो भविष्य में ऐसी स्थिति से काफी हद तक बचाएगा।
1. सबसे पहले इकठ्ठे हो गए 10 दिनों को साल 1582 से बाहर किया गया ।
2. हर चौथे साल के फ़रवरी में 29 तारीख़ के रूप में एक अतिरिक्त दिन जोड़ा गया।
3. साथ ही आने वाले अतिरिक्त ऐसे सालों में भी लीप डे होगा जो 100 व 400 दोनों नंबर से विभाजित हो सकेंगे।
उदाहरण के लिए साल 2000 , 100 और 400 दोनों से विभाजित होता है। इसलिए यह एक लीप ईयर था। जबकि साल 1900, 100 से तो विभाजित होता है मगर 400 से नहीं होता। इसलिए यह एक ईयर लीप ईयर नहीं था।
क्या ग्रेगोरियन कैलेंडर से जूलियन कैलेंडर जैसी समस्या पैदा नहीं होगी ?
जूलियन कैलेंडर की तरह ग्रेगोरियन कैलेंडर भी 100 % सटीक नहीं है। दरसल ग्रेगोरियन कैलेंडर का एक साल सोलर ईयर से 30 सेकंड लम्बा है। मगर यह अंतर इतना कम है की इसका देखने लायक असर एक लम्बे अंतराल बाद ही मिलेगा। मतलब ग्रेगोरियन कैलेंडर में यह अतिरिक्त 30 सेकंड का समय एक दिन के रूप में दिखने में करीब 3300 वर्ष का समय लग जायेगा। हो सकता है तब आगे जाकर कैलंडर के किसी साल से एक दिन कम करके इस सापेक्षता (relativity) को दोबारा स्थापित किया जायेगा।